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संदेह
उक्त के आधार पर साहित्य में, एक प्रकार का अर्थालंकार जिसमें किसी चीज या बात को देखकर उसकी यथार्थता या वास्तविकता के संबंध में मन में संदेह बने रहने का उल्लेख होता। इस प्रकार का कथन कि जो कुछ सामने है, वह अमुक है अथवा कुछ और ही है। यथा (क) कैधौं फूली दुपहरी, कंधों फूली साँझ। मतिराम। (ख) निद्रा के उस अलसित वन में वह क्या भावों की छाया। दृग पलकों में विचर रही या वन्य देवियों की माया।-पंत।
मैला कपड़ा पातर देह, कुत्ता काटे कौन संदेह
गंदे कमज़ोर आदमी को कुत्ता भी काटता है, गंदे कमज़ोर को कमज़ोर से कमज़ोर भी तंग करता है
सांसा साएं मेट दे और ना मेटे को, जब हो काम संदेह का तो नाम उसी का लो
ईश्वर के अतिरिक्त कोई संशय दूर नहीं कर सकता, जब कोई ख़तरनाक जुरम करता हो अथवा दुविधा की बात है तो ईश्वर का स्मरण करना चाहिए
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